प्रेमचंद की एक कहानी है – बड़े भाई साहब. दो भाई हॉस्टल में रहकर पढ़ाई कर रहे होते हैं. बड़ा भाई गम्भीर स्वभाव के, छोटा खिलन्दर. बड़े भाई किताबों में घुसे हैं, छोटा पतंगे लूट रहा है. बड़े ने पढ़कर सिर फोड़ लिया, छोटा कंचे खेलने में मगन है. कुछ दिन तक तो बड़े भाई साहब इस हरकतों को नज़रंदाज़ करते रहे बाद में छोटे को समझाने की कोशिश की. फिर भी कोई सुनवाई नहीं. दिन बीतते गए. छोटा खेल-खिलौनों में ही मगन रहता. इम्तिहान हुए. परिणाम उल्टा आया. बड़े भाई साहब फेल थे, छोटा अच्छे दर्जे से पास हो गया. एकदम से चीजें बदल गईं. छोटे ने बड़े को मुंह चिढ़ाया. छोटे की हिम्मत को बल मिला.
समय बीता. बड़े का पढ़ना कम ना हुआ, छोटे की मस्तियों में कोई कमी नहीं आयी. फिर वही रवैया. कागज़ की तितलियां उड़ाना, गुल्ली-डंडे में दिन काट लेना. दुर्दैव से अगले साल पुनः वही मामला. बड़े भाई फिर फेल हो गए, छोटा पास हो गया. इसी सिलसिले में बड़ा भाई-छोटा भाई दोनों भाई में बस एक दर्जे का अंतर रह गया. छोटे की हिम्मत बढ़ गयी. अब वो बड़े भाई की बात इधर से सुनता, उधर से निकाल देता. उसे अब खुली छूट मिल गयी थी. एक दिन बाज़ार से लौटते समय बड़े ने छोटे को कहीं पतंग लूटते पकड़ लिया. पहले तो फटकार लगायी, फिर बड़े प्यार से समझाते हुए बोले –
‘तुम जहीन हो, इसमें शक नही लेकिन वह जेहन किस काम का, जो हमारे आत्मगौरव की हत्या कर डाले? तुम अपने दिल में समझते होगे, मैं भाई साहब से महज एक दर्जा नीचे हूं और अब उन्हें मुझको कुछ कहने का कोई हक नहीं है; लेकिन यह तुम्हारी गलती है. मैं तुमसे पांच साल बड़ा हूं और चाहे आज तुम मेरी ही जमात में आ जाओ–और परीक्षकों का यही हाल है, तो निस्संदेह अगले साल तुम मेरे समकक्ष हो जाओगे और शायद एक साल बाद तुम मुझसे आगे निकल जाओ-लेकिन मुझमें और तुममें जो पांच साल का अन्तर है, उसे तुम क्या, ख़ुदा भी नही मिटा सकता. मैं तुमसे पांच साल बड़ा हूं और हमेशा रहूंगा. मुझे दुनिया का और जिन्दगी का जो तज़ुर्बा है, तुम उसकी बराबरी नहीं कर सकते, चाहे तुम एमए., एमफिल. और डीलिट. ही क्यो न हो जाओ. समझ किताबें पढ़ने से नहीं आती हैं.’
Aspirants का क्लाइमेक्स भी कुछ ऐसा ही है. अभिलाष UPSC क्रैक करके माननीय जिलाधिकारी बन गया है और संदीप भैया PCS निकालकर असिस्टेंट लेबर कमिश्नर की पोस्ट पर हैं. पढ़ाई में अभिलाष जूनियर था, पदवी के हिसाब से संदीप भैया जूनियर हैं. अभिलाष ज़िंदगी से जूझ रहा है. 6 साल पहले की कुछ घटनाएं उसको परेशान करतीं हैं. वो शायद ठीक करने की कोशिश करता भी है तो पद-प्रतिष्ठा आड़े आ जाती है. ईगो टकराने लगते हैं. जिगरी दोस्तों में औकात, क्लास की रेखाएं खिंचने लगती हैं. तभी आते हैं संदीप भैया. बड़े भाई साहब की तरह. अपने जिलाधिकारी के सामने वो एक असिस्टेंट लेबर कमिश्नर की मुद्रा में ही खड़े हैं. वही रेस्पेक्ट, वही ब्यूरोक्रेट्स वाली फॉर्मेलिटीज. लेकिन यहां अनुभव पदवी को पीछे छोड़ देता है. अभिलाष के अंदर भरे छह साल के गुबार को एक झटके में खत्म कर संदीप भैया जिस लहजे में उसे गले लगाते हैं, यहां एक माननीय जिलाधिकारी महोदय अपने असिस्टेंट लेबर कमिश्नर के सामने बौने-सा लग पड़ता है. अनुभव फिर पद से आगे निकल जाता है. बिल्कुल प्रेमचंद के बड़े भाई साहब की तरह. साहित्य को ऐसे ही समाज का दर्पण नहीं कहा गया है.

✍️ अमन आकाश (Aman Akash) , बिहार
असिस्टेंट प्रोफेसर, पीएचडी रिसर्च स्कॉलर
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